गुरुवार, 16 सितंबर 2010

मेरा प्रिय काव्य संकलन

भगवान
भगवान हर जगह है
इसलिये जब भी जी चाहता है
मैं उन्हे मुट्ठी में कर लेता हूँ
तुम भी कर सकते हो
हमारे तुम्हारे भगवान में
कौन महान है
निर्भर करता है
किसकी मुट्ठी बलवान है।

- विश्वनाथ प्रताप सिंह

ऊँचाई
ऊँचे पहाड़ पर,
पेड़ नहीं लगते,
पौधे नहीं उगते,
न घास ही जमती है।

जमती है सिर्फ बर्फ,
जो, कफ़न की तरह सफ़ेद और,
मौत की तरह ठंडी होती है।
खेलती, खिल-खिलाती नदी,
जिसका रूप धारण कर,
अपने भाग्य पर बूंद-बूंद रोती है।

ऐसी ऊँचाई,
जिसका परस
पानी को पत्थर कर दे,
ऐसी ऊँचाई
जिसका दरस हीन भाव भर दे,
अभिनंदन की अधिकारी है,
आरोहियों के लिये आमंत्रण है,
उस पर झंडे गाड़े जा सकते हैं,

किन्तु कोई गौरैया,
वहाँ नीड़ नहीं बना सकती,
ना कोई थका-मांदा बटोही,
उसकी छाँव में पलभर पलक ही झपका सकता है।

सच्चाई यह है कि
केवल ऊँचाई ही काफ़ी नहीं होती,
सबसे अलग-थलग,
परिवेश से पृथक,
अपनों से कटा-बँटा,
शून्य में अकेला खड़ा होना,
पहाड़ की महानता नहीं,
मजबूरी है।

ऊँचाई और गहराई में
आकाश-पाताल की दूरी है।

जो जितना ऊँचा,
उतना एकाकी होता है,
हर भार को स्वयं ढोता है,
चेहरे पर मुस्कानें चिपका,
मन ही मन रोता है।

ज़रूरी यह है कि
ऊँचाई के साथ विस्तार भी हो,
जिससे मनुष्य,
ठूँठ सा खड़ा न रहे,
औरों से घुले-मिले,
किसी को साथ ले,
किसी के संग चले।

भीड़ में खो जाना,
यादों में डूब जाना,
स्वयं को भूल जाना,
अस्तित्व को अर्थ,
जीवन को सुगंध देता है।

धरती को बौनों की नहीं,
ऊँचे कद के इंसानों की जरूरत है।
इतने ऊँचे कि आसमान छू लें,
नये नक्षत्रों में प्रतिभा की बीज बो लें,

किन्तु इतने ऊँचे भी नहीं,
कि पाँव तले दूब ही न जमे,
कोई काँटा न चुभे,
कोई कली न खिले।
न वसंत हो, न पतझड़,
हो सिर्फ ऊँचाई का अंधड़,
मात्र अकेलेपन का सन्नाटा।

मेरे प्रभु!
मुझे इतनी ऊँचाई कभी मत देना,
ग़ैरों को गले न लगा सकूँ,
इतनी रुखाई कभी मत देना।

- अटल बिहारी वाजपेयी

स्वागतम्
स्वागतम् शुभ स्वागतम्
आनंद मंगल मंगलम्
नित प्रियम् भारत भारतम्

नित्य निरंतरता नवता
मानवता समता ममता
सारथि साथ मनोरथ का
जो अनिवार नहीं थमता
संकल्प अविजित अभिमतम्

आनंद मंगल मंगलम्
नित प्रियम् भारत भारतम्

कुसुमित नई कामनाएँ
सुरभित नई साधनाएँ
मैत्री मति क्रीडांगन में
प्रमुदित बन्धु भावनाएँ
शाश्वत सुविकसित इति शुभम

आनंद मंगल मंगलम्
नित प्रियम् भारत भारतम्

- पंडित नरेन्द्र शर्मा

प्रेम
है कौन सा वह तत्व, जो सारे भुवन में व्याप्त है,
ब्रह्माण्ड पूरा भी नहीं जिसके लिये पर्याप्त है?
है कौन सी वह शक्ति, क्यों जी! कौन सा वह भेद है?
बस ध्यान ही जिसका मिटाता आपका सब शोक है,
बिछुड़े हुओं का हृदय कैसे एक रहता है, अहो!
ये कौन से आधार के बल कष्ट सहते हैं, कहो?
क्या क्लेश? कैसा दुःख? सब को धैर्य से वे सह रहे,
है डूबने का भय न कुछ, आनन्द में वे रह रहे।
वह प्रेम है

क्या हेतु, जो मकरंद पर हैं भ्रमर मोहित हो रहे?
क्यों भूल अपने को रहे, क्यों सभी सुधि-बुधि खो रहे?
किस ज्योति पर निश्शंक हृदय पतंग लालायित हुए?
जाते शिखा की ओर, यों निज नाश हित प्रस्तु हुए?
वह प्रेम है

आकाश में, जल में, हवा में, विपिन में, क्या बाग में,
घर में, हृदय में, गाँव में, तरु में तथैव तड़ाग में,
है कौन सी यह शक्ति, जो है एक सी रहती सदा,
जो है जुदा करके मिलाती, मिलाकर करती जुदा?
वह प्रेम है

चैतन्य को जड़ कर दिया, जड़ को किया चैतन्य है,
बस प्रेम की अद्भुत, अलौकिक उस प्रभा को धन्य है,
क्यों, कौन सा है वह नियम, जिससे कि चालित है मही?
वह तो वही है, जो सदा ही दीखता है सब कहीं।
वह प्रेम है

यह देखिए, घनघोर कैसा शोर आज मचा रहा।
सब प्राणियों के मत्त-मनो-मयूर अहा! नचा रहा।
ये बूँद हैं, या क्या! कि जो यह है यहाँ बरसा रहा?
सारी मही को क्यों भला इस भाँति है हरषा रहा?
वह प्रेम है

यह वायु चलती वेग से, ये देखिए तरुवर झुके,
हैं आज अपनी पत्तियों में हर्ष से जाते लुके।
क्यों शोर करती है नदी, हो भीत पारावर से!
वह जा रही उस ओर क्यों? एकान्त सारी धार से।
वह प्रेम है

यह देखिए, अरविन्द से शिशुवृंद कैसे सो रहे,
है नेत्र माता के इन्हें लख तृप्त कैसे हो रहे।
क्यों खेलना, सोना, रुदन करना, विहँसना आदि सब,
देता अपरिमित हर्ष उसको, देखती वह इन्हें जब?
वह प्रेम है

वह प्रेम है, वह प्रेम है, वह प्रेम है, वह प्रेम है
अचल जिसकी मूर्ति, हाँ-हाँ, अटल जिसका नेम है।
वह प्रेम है

- माखनलाल चतुर्वेदी

जीवन की ढलने लगी सांझ
जीवन की ढलने लगी सांझ
उमर घट गई
डगर कट गई
जीवन की ढलने लगी सांझ।

बदले हैं अर्थ
शब्द हुए व्यर्थ
शान्ति बिना खुशियाँ हैं बांझ।

सपनों में मीत
बिखरा संगीत
ठिठक रहे पांव और झिझक रही झांझ।
जीवन की ढलने लगी सांझ।

- अटल बिहारी वाजपेयी

क़दम मिलाकर चलना होगा
बाधाएँ आती हैं आएँ
घिरें प्रलय की घोर घटाएँ,
पावों के नीचे अंगारे,
सिर पर बरसें यदि ज्वालाएँ,
निज हाथों में हँसते-हँसते,
आग लगाकर जलना होगा।
क़दम मिलाकर चलना होगा

हास्य-रूदन में, तूफ़ानों में,
अगर असंख्यक बलिदानों में,
उद्यानों में, वीरानों में,
अपमानों में, सम्मानों में,
उन्नत मस्तक, उभरा सीना,
पीड़ाओं में पलना होगा।
क़दम मिलाकर चलना होगा।

उजियारे में, अंधकार में,
कल कहार में, बीच धार में,
घोर घृणा में, पूत प्यार में,
क्षणिक जीत में, दीर्घ हार में,
जीवन के शत-शत आकर्षक,
अरमानों को ढलना होगा।
क़दम मिलाकर चलना होगा।

सम्मुख फैला अगर ध्येय पथ,
प्रगति चिरंतन कैसा इति अब,
सुस्मित हर्षित कैसा श्रम श्लथ,
असफल, सफल समान मनोरथ,
सब कुछ देकर कुछ न मांगते,
पावस बनकर ढ़लना होगा।
क़दम मिलाकर चलना होगा।

कुछ काँटों से सज्जित जीवन,
प्रखर प्यार से वंचित यौवन,
नीरवता से मुखरित मधुबन,
परहित अर्पित अपना तन-मन,
जीवन को शत-शत आहुति में,
जलना होगा, गलना होगा।
क़दम मिलाकर चलना होगा।

- अटल बिहारी वाजपेयी

हम दीवानों की क्या हस्ती
हम दीवानों की क्या हस्ती,
हम आज यहाँ कल वहां चले
मस्ती का आलम साथ चला,
हम धूल उडाते जहाँ चले

आए बनकर उल्लास अभी
आँसू बनकर बह चले अभी,
सब कहते ही रह गए,
अरे तुम कैसे आए, कहाँ चले?

किस ओर चले? यह मत पूछो,
चलना है, बस इसलिए चले,
जग से उसका कुछ लिए चले,
जग को अपना कुछ दिए चले।

दो बात कही, दो बात सुनी,
कुछ हँसे और फिर कुछ रोये,
छक कर सुख दुःख घूंटों को
हम एक भाव से पिए चले।

हम भिखमंगों की दुनिया में
स्वछंद लुटा कर प्यार चले,
हम एक निशानी सी उर पर,
ले असफलता का भार चले

हम मान रहित, अपमान रहित
जी भरकर खुलकर खेल चुके,
हम हँसते हँसते आज यहाँ
प्राणों की बाजी हार चले!

हम भला बुरा सब भूल चुके,
नतमस्तक हो मुख मोड़ चले,
अभिशाप उठाकर होठों पर
वरदान दृगों से छोड़ चले

अब अपना और पराया क्या?
आबाद रहे रुकने वाले!
हम स्वयं बंधे थे,
और स्वयं हम अपने बंधन तोड़ चले!

- भगवतीचरण वर्मा

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