रविवार, 5 सितंबर 2010

ठुमरी को नई ताब दी बड़े ग़ुलाम अली खां ने

ठुमरी को नई ताब दी बड़े ग़ुलाम अली खां ने


दिल को छू जाने वाली आवाज़ के मालिक उस्ताद बड़े गुलाम अली खां ने नवेली शैली के ज़रिए ठुमरी को नई आब और ताब दी। जानकारों के मुताबिक उस्ताद ने अपने प्रयोगधर्मी संगीत की बदौलत ठुमरी को जानी-पहचानी शैली की सीमाओं से बाहर निकाला।

भारतीय संगीत के फलक पर 1930 के दशक में सितारे की तरह चमके इस गायक ने साल 1938 में तत्कालीन कलकत्ता में हुए एक कार्यक्रम में दुनिया के सामने पहली बार अपनी आवाज़ का जादू बिखेरा था। उसके बाद वह संगीत को आगे बढ़ाने और उसे समृद्ध करने की मुहिम में रम गए।

संगीत समीक्षक विजय शंकर के अनुसार उस्ताद बड़े ग़ुलाम अली खां का हिन्दुस्तानी संगीत में नायाब मुक़ाम है। उनकी आवाज़ आज भी सुनने वालों को मंत्रमुग्ध कर देती है।

उन्होंने कहा कि उस्ताद ने अपने रियाज़ के ज़रिए ठुमरी और ख़्याल की शैली में कई अभिनव प्रयोग किए और संगीत को नई विधाओं से नवाज़ा। शंकर ने कहा कि उस्ताद बड़े ग़ुलाम अली खां के गायन के ख़ज़ाने का बहुत बड़ा हिस्सा आज की पीढ़ी को उपलब्ध नहीं है क्योंकि उस दौर में रिकार्डिंग की सुविधा ज़्यादा विकसित नहीं थी। उस वक्त बनने वाले रिकॉर्ड जल्दी ख़राब हो जाते थे। बाज़ार में उपलब्ध रिकार्ड उनके जीवन के अंतिम दौर के हैं, जो उनके गायन का सच्चा प्रतिनिधित्व नहीं करते।

पश्चिमी पंजाब के कसूर में साल 1902 में जन्मे उस्ताद पटियाला राने के थे, लेकिन उन्होंने अपने संगीत को कभी एक राने की सीमाओं में कैद नहीं रखा। वह अपने ख़्याल गायन में ध्रुपद, ग्वालियर राने और जयपुर राने की शैलियों का संयोजन करते थे।

दिलचस्प है कि संगीत की दुनिया में उनकी शुरूआत सारंगी वादक के रूप में हुई। उन्होंने अपने पिता अली बख्श खां और चाचा काले खां से संगीत की बारीकियां सीखीं।

दिखने में बेहद कड़क मिजाज़ और मज़बूत डील-डौल वाले बड़े गुलाम अली ने सबरंग नाम से कई बंदिशें रचीं। उनकी सरगम का अंदाज़ बिल्कुल निराला था।
साल 1947 में भारत के विभाजन के बाद बड़े ग़ुलाम अली खां पाकिस्तान चले गए थे लेकिन संगीत के इस उपासक को पाकिस्तान का माहौल कतई पसंद नहीं आया। नतीजतन वह जल्द ही भारत लौट आए।

उस्ताद बड़े ग़ुलाम अली खां ने कालजयी फिल्म म़ुगल-ए-आज़म में तानसेन पात्र के लिए गायन किया था। कहा जाता है कि इसके लिए जब संगीतकार नौशाद उनके पास गए तो उस्ताद ने उन्हें टालने के लिए 25 हज़ार रूपए की मांग की थी।

उस दौर के स्थापित कलाकार लता मंगेशकर और मोहम्मद रफी एक गाने के लिए 500 रपए मेहनताना लिया करते थे। तब बड़े ग़ुलाम अली की इस भारी भरकम मांग को फिल्म के निर्देशक के आसिफ ने तुरंत स्वीकार कर लिया।
खां साहब को भारत सरकार के पदम भूषण और संगीत नाटक अकादमी सम्मान से भी नवाज़ा गया।

संगीत के इस महान साधक ने 25 अप्रैल 1968 को हैदराबाद में आखिरी सांस ली।

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