शुक्रवार, 3 सितंबर 2010
आँखों ही आँखों में
हिन्दी की शक्ति को जानने के लिए उसका उपयोग करना आवश्यक है। भाषा कोई भी हो, वह कभी शक्तिहीन नहीं होती है। लेकिन प्रत्येक भाषा की अपनी विशिष्टता होती है, पहचान होती है। यह पहचान उसके उपयोग में शब्दों, अर्थों, भावों के माध्यम से मिलती है और इसीलिए भाषा का उपयोग करने पर ही उस भाषा के सामर्थ्य को पहचाना जा सकता है। "आँख" को लेकर हिन्दी का एक प्रयोग बहुत रोचक है। "आँख" को "नजर" के अर्थ में और "नजर" को "आँख" के अर्थ में अदल-बदल कर दिया जाता है। "आँख" के प्रयोग से कुछ शब्द समूहों को कितने शक्तिशाली अर्थ मिलते है, पढ़िए : आँखें चार हो जाना। प्यार करने वाले भी शायद नहीं जानते होंगे कि इसका अर्थ "प्यार" से जुड़ा है। "नजरें मिलीं" से भी लगभग यही अर्थ ध्वनित होता है। दो प्रेमियों की दो-दो आँखें मिलकर "चार" हो जाती हैं यानी उनके बीच, उनके दिलों के बीच का फासला मिट जाता है। वे एकाकार होने की दिशा में बढ़ जाते हैं। "आँखों ही आँखों में" यानी संदेश का आदान-प्रदान बिना किसी शब्द या माध्यम के। बहुत कह दिया जाता है "आँखों ही आँखों में।" "आँख का पानी" खत्म हो जाना यानी शर्म खत्म हो जाना है। जबकि नजरें नीची कर लेने में शर्म की भूमिका उसमें आ जाती है। "नजरें चुराना" यानी मिलने से, पहचाने जाने से बचना। किसी भूल, शर्म या अन्य कारण से नजरों को किसी से चुराना पड़ता है। "आँख बंद कर लेना" का अर्थ है वास्तविकता को नहीं जानने की मनःस्थिति में होना और आँख बंद हो जाना यानी महाप्रयाण पर चल पड़ना। किसी ने सच ही कहा है कि आँखें सब कुछ कह देती हैं।
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इच्छा है... पर अँगरेजी की मजबूरी है पाठकों की दुनिया इच्छा है... पर अँगरेजी की मजबूरी है जिस प्रकार हमारी श्रद्धा ईश्वर के प्रति होती है, जिस प्रकार हमारी श्रद्धा माता-पिता के प्रति होती है उतनी ही श्रद्धा जब तक हिन्दी भाषा के प्रति नहीं रखेंगे तब तक हिन्दी भाषा को उचित सम्मान नहीं दिला पाएँगे। अन्य क्षेत्रों के समान शिक्षण के क्षेत्र में अभी भी हिन्दी भाषा को उचित स्थान नहीं दिला पाए हैं। मैं प्राणी शास्त्र का प्राध्यापक हूँ। स्नातक स्तर पर तो शिक्षण कार्य हम हिन्दी में कर लेते हैं क्योंकि हिन्दी माध्यम की पुस्तकें उपलब्ध हैं, किन्तु स्नातकोत्तर स्तर पर अभी भी पाठ्यक्रम की पुस्तकें हिन्दी में उपलब्ध नहीं होने से छात्र एवं शिक्षक संघर्ष कर रहे हैं। छात्र अभी भी हिन्दी माध्यम से स्नातकोत्तर की पढ़ाई करना चाहते हैं। वर्तमान में उन्हें अँगरेजी की पुस्तकों से अनुवाद कर हिन्दी माध्यम में नोट्स तैयार कर पढ़ाई करवाई जा रही है। और आगे चलें तो विज्ञान विषय में डॉक्टरेट की उपाधि के लिए हिन्दी माध्यम अभी तक पूर्ण रूप से स्वीकारा नहीं गया है। शोध-पत्र अभी भी अँगरेजी माध्यम से प्रस्तुत करना हमारी मजबूरी है क्योंकि हमारे देश में एवं विदेशों में शोध-पत्र को हिन्दी में स्वीकार नहीं किया जाता है। श्रेष्ठ राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय शोध पत्रिकाएँ जैसे-करंट साइंस, नेचर, इंडियन जरनल ऑफ मेडिकल सांइसेस, रसायन, वनस्पति, भूगर्भ, गणित, भौतिकी, प्राणिकी में शोध-पत्र अँगरेजी में ही प्रकाशित होते हैं। इसी प्रकार विधि के क्षेत्र में विधि के जरनल्स जैसे "लॉ टाइम्स" इत्यादि अँगरेजी में ही प्रकाशित होते हैं। तो क्या ऐसी स्थिति में हम हमारी मातृभाषा के प्रति न्याय कर सकते हैं। नहीं! सुझाव है कि हमारी मातृभाषा सभी क्षेत्रों में अनिवार्य रूप से लागू की जाए अन्य भाषाएँ सहायक के रूप में स्थापित हों तो ही सही मायने में मातृभाषा के प्रति श्रद्धा जागृत होगी।
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