कुछ सुनिए, कुछ कहिए..जारी रहे सिलसिला
कहा जाता है, अपने कहे में वही शख्स असर पैदा कर सकता है जो दूसरों की बात भी ध्यान से सुनता हो। लेकिन क्या हम वही सुन रहे है, जो हमारी धारणाओं के मुताबिक है? जब हम अपनी बात कहते है तो सुनिश्चित हो जाना चाहते है कि दूसरा भी वही समझे, जो हम कहना चाहते है लेकिन इन सवालों से पहले तो यही बात साफ हो जानी चाहिए कि हम क्या कहना-सुनना चाहते है। ’संवाद‘ यानी कहना-सुनना आखिर है क्या? शाब्दिक अर्थ में तो खबरों को सफलतापूर्वक पहुंचाना या उनका आदान-प्रदान करना संवाद है। लोगों के विचारों के आदान-प्रदान को संवाद कहते है। कई तरीके है, जिनके जरिए हम संवाद करते है। आंखों ही आंखों में इशारों से लेकर सलीके से कहकर हम अपनी बात किसी अन्य तक पहुंचा सकते है। मौन बहुत मुखर होता है। यही कारण है कि कई बार हम मौन रहकर भी संवाद करते है और लक्षित तक अपना मंतव्य स्पष्ट कर देते है। तो फिर लोगों के बीच सफल संवाद कैसे संभव हो, यह जानना रोचक है। एक औसत व्यक्ति हर दिन पच्चीस से तीस हजार शब्द बोलता है, लेकिन वही व्यक्ति खुद तक पहुंचाई गई बातों में से मात्र 25 प्रतिशत को ही सुनता-गुनता है। चूंकि संवाद सफलतापूर्वक अपने विचारों का आदान-प्रदान करना है तो फिर सवाल है कि क्या सफल ’आदान-प्रदान‘ को सुनने-सुनाने से अलग समझा जा सकता है? क्या ये दोनों चीजें बिल्कुल अलग-अलग हो सकती है? क्या ये दोनों एक ही सिक्के दो पहलू नहीं है या क्या ये इस हाथ दे, उस हाथ ले- के अंदाज में तो इस्तेमाल नहीं होते? इन सवालों के बरक्स कहना होगा कि अच्छा संवाद सुनने के हुनर के साथ ही शुरू होता है। सुनना दूसरों का ही नहीं, बल्कि अपने भीतर की आवाज सुनना भी है। जो भीतर की आवाज सुनना सीख जाएंगे या जो अपनी सोच की पूरी प्रक्रिया के प्रति सचेत होंगे, वही किसी दूसरे को बेहतर ढंग से सुन सकते है। जो खुद से ही अनजान है, वह भला किसी दूसरे को कैसे जान सकते है? जब आप दूसरे को सुनते है, तो न केवल इस बात पर ध्यान देते है कि वह क्या कह रहा है बल्कि उन तमाम कल्पनाओं, धारणाओं, पूर्वग्रहों, दुराग्रहों, मिथ्या अभियान, संकल्पों, घम आदि मनोभावों से भी आपका साबका पड़ता है, जो कही गई बातों में ही कहीं छिपे होते है। एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में कार्यरत 55 वर्षीय सीनियर एक्जीक्यूटिव से पूछा गया कि किन मूल्यों के साथ उन्होंने अब तक का जीवन जिया है, वह तपाक से बोले, ’बहुत उम्दा तरीके से जिया है मैने जीवन। पिछले तीस बरसों से अनुशासन और कड़ी मेहनत से बुना है मैने अपनी जिंदगी का ताना-बाना।‘
जब उनसे अपने कहे को और साफ करने को कहा गया तो वे बोले, अनुशासन से उनका मतलब सुबह जल्दी सोकर उठना और फिल्म आदि देखने की मौज-मस्ती को तिलांजलि दिये रखने से है। यह भी कहा कि उन्होंने इस दौरान अपने कार्य को अपनी जिंदगी से ज्यादा तरजीह दी। दरअसल, किसी व्यक्ति के लिए अनुशासन का जो मतलब है, दूसरे के लिए भी वही हो, जरूरी नहीं। हममें से हरेक अपनी धारणाएं और विचारों को लिये चलता है। कह सकते है कि धारणाएं या विचार रंगीन चश्मों की मानिंद है। हम जिस रंग का चश्मा पहने होंगे, चीजें भी वैसा ही दिखलाई पड़ेंगी। रंग-विशेष का चश्मा पहने व्यक्ति जिन अनुभवों से गुजरता है, उसी से उसकी जीवन-ष्टि बनती है। विडंबना यह है कि वह अपने जीवन मूल्यों को ही सटीक मान बैठता है। इस करके नए मूल्यों या विचारों को अपनाने की उसके यहां गुंजाइश बचती ही नहीं। विचारों के लिहाज से वह बंधा रह जाता है। फिर, चाहे अनुशासन की बात हो या सफलता के पैमाने की, प्यार या परस्पर संबंध का मामला हो या फिर कार्य-दायित्व ही क्यों न हो, सबकुछ एक र्ढे पर घूमने लगता है। असरदार ढंग से संवाद बनाने के लिए जरूरी है कि हम इस सच को जान लें कि हर किसी ने अपने नजरिए का चश्मा चढ़ा रखा है। जिस पल हम यह सच मान लेते है, न केवल अपनी सोच की समूची प्रक्रिया को समझ जाते है बल्कि दूसरों के कहे का भी सम्मान करने लग पड़ते है। कहा जा सकता है कि हममें एक प्रकार का जिज्ञासा भाव पैदा हो चुका होता है जिसमें किसी पूर्वग्रह या दुराग्रह का कोई स्थान नहीं रहता। पांच सौ साल पहले गुरुनानकदेवजी भी कह चुके है, ’जब लगि दुनिया रहिए नानक, किछु सुनिए, किछु कहिए..‘
रणधीर तेजा चौधरी
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